विपक्षी पार्टियां एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थीं, जो राजनीतिक हो, जिसके पीछे कोई वैचारिक आधार हो, जिससे किसी न किसी रूप में न्यायपालिका का जुड़ाव हो और संविधान की मूल भावना भी जुड़ी हुई हो। दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले का फैसला केंद्र के हाथ में रहे इसके लिए एक प्राधिकरण का गठन करने वाले केंद्र के अध्यादेश ने विपक्ष को वह मुद्दा दे दिया है। विपक्ष इस मुद्दे पर बड़ी राजनीतिक लड़ाई लड़ सकता है तो विधायी और कानूनी लड़ाई भी लड़ी जा सकती है। ध्यान रहे एकजुट विपक्ष इससे पहले सीबीआई और ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट में गया था लेकिन अदालत ने इस पर विचार करने से इनकार कर दिया था। उस मामले में विपक्ष कमजोर विकेट पर था। ऐसा लग रहा था कि समूचा विपक्ष भ्रष्टाचार के आरोपों से अपनी रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में गया है। जनता के बीच भी उस मुद्दे का कोई सकारात्मक असर विपक्ष के लिए नहीं था। अब अध्यादेश के रूप में विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है।
अगर विपक्षी पार्टियां साझा प्रयास करती हैं तो इस मुद्दे पर सरकार और भाजपा को उसी तरह से बैकफुट पर ला सकती हैं, जैसे किसानों ने कृषि कानूनों के मसल पर ला दिया था। इसके लिए विपक्ष को इस मुद्दे का दायरा बढ़ाना होगा। यह सिर्फ दिल्ली सरकार तक सीमित रहा तो उसका असर भी सीमित होगा। दायरा बढ़ाने से मतलब है कि जिस तरह से दिल्ली की चुनी हुई सरकार के कामकाज में केंद्र का दखल बढ़ा है उस तरह की स्थितियां कई जगह हैं। महाराष्ट्र को इस मुद्दे के साथ जोड़ा जा सकता है, जहां के तत्कालीन राज्यपाल और विधानसभा स्पीकर को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों बेहद तीखी टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं था, जिससे उनको लगे कि उद्धव ठाकरे की सरकार बहुमत खो चुकी है। सर्वोच्च अदालत ने माना कि राज्यपाल की ओर से सदन की बैठक बुलाने और विश्वास मत हासिल करने के लिए कहे जाने की वजह से उद्धव ठाकरे सरकार गिरी थी। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर को लेकर भी कहा था कि उन्होंने विधायक दल को ही पार्टी मान लिया और उसके हिसाब से विधानसभा में व्हिप की नियुक्ति की, जबकि राजनीतिक दल की ओर से नियुक्त व्यक्ति को व्हिप की मान्यता मिलनी चाहिए।
महाराष्ट्र के अलावा जम्मू कश्मीर का मुद्दा भी विपक्ष के पास है, जहां पिछले कई सालों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया स्थगित है। केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाया, उस पर ज्यादातर विपक्षी पार्टियों को आपत्ति नहीं है। वह संविधान का एक अस्थायी प्रावधान था, जिसे हटा दिया गया। लेकिन कश्मीर का मामला इतना भर नहीं है। केंद्र सरकार ने उसका दर्जा बदल दिया। एक पूर्ण राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया। राज्य में विधानसभा पहले से भंग थी और चुनाव की प्रक्रिया स्थगित थी। ऐसे में जन भावना जानने का कोई साधन केंद्र के पास नहीं था। लेकिन उसने एकतरफा तरीके से एक राज्य का विभाजन कर दिया और उसका दर्जा बदल कर पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया। उसके बाद भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने की कोई पहल राज्य में नहीं हो रही है। परिसीमन का काम पूरा हो गया है और नई मतदाता सूची बन चुकी है। इतना ही नहीं मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम भी लगभग हो चुका है। इस गर्मियों में विधानसभा का चुनाव होने की चर्चा थी। लेकिन अभी तक इस बारे में कोई सूचना नहीं है।
सो, विपक्षी पार्टियों को दिल्ली सरकार से अधिकार छीनने के लिए लाए गए अध्यादेश को सिर्फ दिल्ली के संदर्भ में देखने की बजाय व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए। यह संघवाद की बुनियादी अवधारणा से जुड़ा मामला है। विपक्षी पार्टियों को शिकायत रही है कि केंद्र सरकार कहीं उप राज्यपाल के जरिए तो कहीं राज्यपाल के जरिए और कहीं केंद्रीय एजेंसियों के जरिए विपक्षी पार्टियों की सरकारों के कामकाज में दखल बढ़ा रही है या सरकारों को अस्थिर करने का प्रयास कर रही है। यह आरोप पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार, झारखंड से लेकर तेलंगाना और दिल्ली से लेकर पंजाब तक की सरकारों ने लगाए हैं। इन राज्यों में सत्तारूढ़ दलों ने दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ मिल कर केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। उसमें उनको कामयाबी नहीं मिल पाई थी। उनके लिए केंद्र सरकार का अध्यादेश उसी मामले का विस्तार हो सकता है।
इसमें कई मामले एक साथ जुड़े हैं। संघवाद, संविधान का बुनियादी ढांचा, न्यायपालिका सब इससे जुड़े हैं। इस मामले में कानूनी लड़ाई अदालत में लड़ी जाएगी और विधायी लड़ाई संसद में। लेकिन एक राजनीतिक लड़ाई भी होगी, जिसकी तैयारी अरविंद केजरीवाल करते दिख रहे हैं। वे इस मसले पर विपक्षी पार्टियों को एकजुट कर रहे हैं। उनके पक्ष में यह बात जाती है कि सभी विपक्षी पार्टियां इस संकट को अपने संकट के तौर पर देख सकती हैं क्योंकि हर राज्य को ऐसी कोई न कोई शिकायत केंद्र से जरूर रही है। यहां यह ध्यान रखने की जरूरत है संसद में विपक्ष विधायी लड़ाई नहीं जीत सकता है। राज्यसभा में, जहां सरकार का पूर्ण बहुमत नहीं है वहां भी उसे मुद्दों के आधार पर सहयोग करने वाली पार्टियों का समर्थन हासिल है। इसलिए अध्यादेश को कानून बनने से रोकने की लड़ाई सफल नहीं हो सकती है। फिर भी यह हारती हुई लड़ाई विपक्ष को एकजुट कर सकती है और इससे सडक़ की लड़ाई को बल मिल सकता है।
ध्यान रहे केंद्र सरकार ने अध्यादेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले को पलटा है। इसलिए गर्मियों की छुट्टियों के बाद सर्वोच्च अदालत में एक बार फिर इस पर मंथन होगा और उसका फैसला जो भी होगा वह बहुत दूरगामी होगा। विधायी और न्यायिक लड़ाई के बीच विपक्षी पार्टियों की राजनीतिक लड़ाई का अपना महत्व होगा। असली दिलचस्पी का मुद्दा यही लड़ाई है क्योंकि इससे कुछ सवाल उठते हैं और हर घटना में साजिश देखने वालों की दिलचस्प व्याख्या भी सामने आती है। सवाल यह है कि क्या भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार को इसका अंदाजा नहीं था कि दिल्ली सरकार की शक्तियां छीन कर अपने हाथ में लेने के इस प्रयास का उलटा असर हो सकता है? साजिश थ्योरी देखने वालों का मानना है कि विवाद बढ़ाने के लिए जान-बूझकर यह अध्यादेश लाया गया है। यह भी कहा जा रहा है कि जान-बूझकर अरविंद केजरीवाल को मौका दिया गया है कि वे विपक्षी एकता की पहल अपने हाथ में लें।
इससे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रयासों से फोकस हटेगा और कांग्रेस की दुविधा बढ़ेगी। अगर संघवाद के मसले पर केजरीवाल केंद्र सरकार और भाजपा से लड़ते दिखते हैं तो उनकी ताकत बढ़ेगी, जिसका इस्तेमाल वे कांग्रेस को कमजोर करने के लिए करेंगे।सो, इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि केंद्र ने इस अध्यादेश से एक तीर से कई शिकार करने का प्रयास किया है। इससे दिल्ली के प्रशासन पर केजरीवाल के नियंत्रण का प्रयास फेल होगा तो उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ेगी, जिससे वे कांग्रेस को कमजोर करेंगे। साथ ही विपक्षी एकता बनवाने में उनकी भूमिका भी बढ़ेगी, जिससे नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव आदि के प्रयासों पर से फोकस हटेगा। ध्यान रखने की जरूरत है कि केजरीवाल कहीं भी सीधे तौर पर भाजपा के लिए चुनौती नहीं हैं- न विधानसभा चुनाव में और न लोकसभा चुनाव में। दीर्घावधि में पता नहीं क्या होगा लेकिन फिलहाल उनकी ताकत बढऩे से विपक्ष और खास कर कांग्रेस कमजोर होगी, जिसका फायदा भाजपा को होगा।